राकेश पांडेय.
बेबस प्रेम
न साथ रह पाता हूं, ना दे पाता उपहार प्रिय।
दो जून की रोटी के लिए, बंट जाता है प्यार प्रिय।-2
सोचता हूं अबकी बार, आऊंगा जरुर मैं।
काम के दबाव में, हो जाता हूं मजबूर मैं।
अनमोल रिश्ते खो जाते, महंगाई के मार प्रिय।
दो जून की रोटी ————
घर का खर्च, बच्चों के पढ़ाई का खर्च, दवा दवाई पर।
भविष्य की बचत, रिश्ते की फ़िक्र, सब इसी कमाई पर।
तुझे देने को मेरे पास है, बस अश्रु के धार प्रिय।
दो जून की रोटी ————–
तर्क है बहुत कहने को कि, पैसा प्यार से भारी नहीं।
शायद कहने वाले के सिर पे, चढ़ी कभी उधारी नहीं।
तेरे अपूर्ण सपनों और दुखों का,मैं ही जिम्मेदार प्रिय,
दो जून की रोटी ————-
हैं एक दूजे के पास नहीं तो क्या, हर अहसास में हम हैं।
दायित्वों के बोझ तले दबे, हर धड़कन हर सांस में हम हैं।
तेरी हर शिकायत हर हमेशा, है मुझे स्वीकार प्रिय।
दो जून की रोटी ———
सुधरेंगे हालात जरुर, ओ दिन भी आएंगे।
संग-संग फिर हम, प्रीत के गीत गाएंगे।
सकारात्मक आशाएं हैं, बाहों के गले हार प्रिय।
दो जून की रोटी ———–
ना साथ रह पाता हूं,ना दे पाता उपहार प्रिय।
दो जून की रोटी के लिए, बंट जाता है प्यार प्रिय।-2
इस कविता के रचनाकार राकेश कुमार पांडेय, जमशदेपुर ग्रेजुएट कॉलेज में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं साथ ही वे एक बेहतर रंगकर्मी भी है.