प्रियंका कुमारी, जमशेदपुर.
मैं परिचारिका तेरे जग की
सरल सुरम्य सौरभमय,
सृष्टि सृजित ये उद्यान।
मधुमय हो संसार तुम्हारा,
बनी धरा अमृत खाद्यान्न।
कण – कण हूं न्योछावर,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
प्रभात बेला घर – घर में मैं,
स्वच्छ मंगल करती चलूं।
नर – नारी के आंगन पुष्पित,
नैतिकता बनकर के मिलूं।
रिद्धि – सिद्धी की सखी हूं,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
नवाचार वैश्विक पटल पर,
लावण्य बनकर बरस गई।
हिम शिखर की सुर्य मुकुट,
बनकर प्रभा भू पर सरस गई।
दुःख में भी मैं हरष रही,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
ज्ञान दीप प्रज्ज्वलित कर,
मन का तिमिरमय क्षण हरूँ।
बाल – ग्वाल सब हंसते रहे,
मैं ऐसी सृष्टि का निर्माण करुं।
सकल ब्रह्माण्ड सृष्टि कृतिकार,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
विश्व चराचर फले – फूले ,
आनंद सदा आह्लादित रहे।
सरस्वती नव कोपल बन उगे,
धरा गगन प्रेम की बात कहे।
रमणीक भी मैं हूं पर बनी,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
भारत को विश्व गुरु बनाने,
मैंने तेजोमय लाल दिए ।
शीश मुकुट का दमखम,
सुसज्जित सुंदर भाल दिए।
सच मानो या ना जानो,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
हाल या बदहाल रहूं पर,
तू चमके उत्तम आकाश में।
मैं तमिस्रा घोर हरूं ,
तू रहे सदा स्वर्णिम प्रकाश में।
तेरे लिए ही बनी हूं,
मैं परिचारिका तेरे जग की।।
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