अनिशा श्रीवास्तव, जमशेदपुर.
खुद से लड़ रही हूं मैं,
अजीब सी उलझनों में फंसी हूं मैं,
क्या सही क्या गलत,
इन सवालों का जवाब ढूंढ रही हूं,
अपने खाव्हिशों के ख्वाबों में खो रही,
अक्सर यह जीवन एक पहेली लगती है,
कभी गहरी नदी,
तो कभी फूल की कली लगती है,
जिसे सुलझाना अभी बाकी है,
बह के कुछ दूर जाना बाकी है,
सुबह सुबह खिलखिलाना बाकी है,
जीवन को रंगों से भरना बाकी है,
यही आस में जी रही हूं मैं,
खुद से लड़ रही हूं मैं.
….. खुद से लड़ रही हूं मैं,
दूसरों के लिए जी रही हूं मैं,
अपने सपनों को भूल रही,
जिमेदारियों में खो रही हूं,
यह आसान नहीं है,
यह कोई त्याग नहीं हैं,
स्त्री का जीवन यही हैं,
समझौते में खुशियां ढूंढना सही है,
कुछ अलग करने की खाव्हिश है,
चाहत अपनी पहचान बनाने की है,
आज फिर हस रही हूं मैं,
ना जाने क्यू, खुद से लड़ रही हूं मैं,
खुद से लड़ रही हूं मैं,
खुशियों को समेट रही हूं मैं,
जीवन मेरा असफल नहीं है
जो चाहा वो पाती रही,
अपने हिसाब से जीती रही,
फिर भी एक खालीपन है,
जीवन पर लगा एक प्रश्न चिन्ह है,
यही जवाब पाना है,
जीवन को खुशियों से भरना है,
सबके साथ जीना है,
नई उच्चाइयों को छूना है,
यही विश्वास से खुश हो रही हूं मैं,
खुद से लड़ रही हूं मैं.