- सरायकेला खरसावां जिला के चांडिल प्रखंड में सुवर्णरेखा नदी के तट पर स्थित जयदा बूढ़ा शिव मंदिर
- चार हजार वर्ष पुराने इतिहास को समेटे यहां मौजूद शिलालेख इसके पौराणिक होने की गवाह है
रीना कुमारी, जमशेदपुर.
संस्कृति, सभ्यता की विरासत कभी विलुप्त नहीं होती है, वह अपने पीछे ऐसे निशान छोड़ जाती है जो कभी न कभी पलट कर जीवन को प्रभावित करने का काम करती है. खाेज-अविष्कार नई वस्तुओं का हो सकता है, लेकिन शोध यानी रीसर्च अक्सर संस्कृति, सभ्यता और उसके रहस्य से जुड़ा होता है. हजारों हजार वर्ष पूर्व क्या हुआ होगा, हमारे पूर्वजों ने धरती पर क्या कुछ किया होगा, सैकड़ों हजारों वर्ष पूर्व की सभ्यता कैसी होगी, इसके कई सबूत उस दौरान के मिले शिलालेख देते हैं. हजारों वर्ष पूर्व घटित घटना दंतकथा भले ही हम कह लें, लेकिन उस वक्त, काल की घटना से इंकार नहीं कर सकते हैं. धर्म, आस्था, विश्वास का संबंध भी संस्कृति और सभ्यता से है. आज हम सावन यात्रा की इस कड़ी में ऐसे ही एक प्राचीन शिव मंदिर की कहानी लेकर आए हैं जहां के स्वयंभू शिवलिंग के पहचान की बात चार हजार वर्ष पूरानी बताई जाती है. वहां प्राप्त शिलालेख को पुरातत्व विभाग ने उसके चार हजार वर्ष पुराने होने का उल्लेख अपने शोध में किया है. यह जगह है झारखंड के सरायकेला खरसवां जिला के चांडिल प्रखंड में स्थित जयदा बूढ़ा शिव मंदिर. जयदा बूढ़ा शिव मंदिर सुवर्ण रेखा नदी नट के किनारे घंघोर जंगल के बीच है. इस मंदिर का निर्माण 18वीं-19वीं शदी के मध्यकालीन दिनों में किया गया था. जानिए इस मंदिर से जुड़े रहस्य. पढ़िए रीना कुमारी की विशेष रिपोर्ट.
जिस हरिण का शिकार राजा करना चाहते थे उसे बचा लिए भोलेनाथ और सपने में आ गए
18वीं-19वीं शदी के मध्यकालीन दिनों की बात है. केरा (अब खरसावां) के राजा जयदेव सिंह एक बार सुर्णरेखा नदी के तट पर स्थित केरा के जंगलों में शिकार करने पहुंचे थे. उस दौरान यहां के जंगलों में शेर, बाघ भी हुआ करते थे. राजा जयदेव सिंह शिकार पर थे, एक हरिण जिसका शिकार राजा करना चाहते थे, लेकिन हरिण एक पत्थर के पास जाकर छूप गयी, राजा ने देखा कि वह साधारण पत्थर नहीं बल्कि शिवलिंग था. हरिण जब भगवान शिव के शरण में चली गयी, तो राजा ने उसका शिकार नहीं किया, क्योंकि तीर शिवलिंग में लगने की आशंका थी. जब राजा जयदेव सिंह घर लौटे तो बूढ़े शिव बाबा की कृपा हुई और उन्हें यह सपना आया कि वहां शिवलिंग जिसकी वे पूजा करें. इसकी पूरी जानकारी राजा जयदेव सिंह ने ईचागढ़ के राजा विक्रमादित्य को दी. राजा विक्रमादित्य की देखरेख में मंदिर निर्माण की नींव रखी गयी. उसके बाद मंदिर में राज परिवार व स्थानीय लोग भगवान शिव की अराधना करने लगे. वर्ष 1966 में इस मंदिर में जृना अखाड़ा के महंत ब्रह्मानंद सरस्वती का आगमन हुआ.
ब्रह्मानंद सरस्वती और ग्रामीणों के कठोर परिश्रम से मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ जो आज अपनी भव्यता लिए खड़ा है जिसका मनोरमन दृश्य राष्ट्रीय राजमार्ग 33 से ही दिख जाता है. वर्तमान में इस मंदिर की देखरेख जूना अखाड़ा के महंत केशवानंद जी महाराज कर रहे हैं. मंदिर के सफल संचालन के लिए एक कमेटी भी है. महंत केशवानंद जी महाराज ने बताया कि बाढ़ से यह मंदिर काफी प्रभावित हो चुका था. चौका के धवल ब्रह्मानंद सरस्वती को लेकर यहां आये थे और उसके बाद मंदिर निर्माण को पूर्ण किया गया था.
जहां खुदाई की वहां मिलता गया शिवलिंग
बूढ़ा शिव बाबा मंदिर में 15 से 20 फीट की दूरी पर एक ही जैसे और एक ही आकार के दो शिवलिंग है इसलिए इसे जोड़ा शिवलिंग भी कहा जाता है. इसके बाद यहां खुदाई कार्य शुरू किया गया, इस दौरान जहां भी खुदाई की गयी वहां से अलग अलग आकार के शिवलिंग निकलता गया. इसलिए मंदिर कमेटी ने खुदाई कार्य को रोक दिया. दो मुख्य शिवलिंग वाले मंदिर के बगल में एक और मंदिर है जहां दर्जनों की संख्सा में अलग अलग आकार वाले शिवलिंग है जो खुदाई में मिले थे. एक स्थान पर इतने शिवलिंग वह भी सभी आपरूपी, स्वंभू कम ही मंदिर में देखने को मिलता है.
खुदाई के दौरान यहां कई ऐसे पत्थर मिले जिसपर माता पार्वती, भगवन गणेश, कार्तिक की प्रतिमा उकेरी हुई थी. इसलिए इसे भगवान शिव का घर भी कहते है जहां उनका पूरा परिवार वास करता है. इस मंदिर प्रांगण में शिवलिंग के ठीक सामने बड़े रुप में नंदी की प्रतिमा का निर्माण कराया गया है जिसकी पूजा श्रद्धालु पूरी भक्तिभाव से करते हैं. हनुमान जी की प्रतिमा भी स्थापित की गयी है.
शिलालेख पर पालि लिपि के अक्षर, इसके हजारों वर्ष पुराने होने के है गवाह
खुदाई के दौरान यहां सेैकड़ों की संख्या में पत्थर के टूकड़े मिले, जिसमें पालि लिपि के अक्षरों में कुछ लिखा है. हालांकि पालि लिपि के जानकारों की कमी होने के कारण इसे आज तक कोई पूरा नहीं पढ़ पाया है. पुरातत्व विभाग की शोध में इसका जिक्र है. मंदिर प्रांगण में भी ऐसे कई शिलालेख है. साथ कई शिला पर मुर्तियां उकेरी गयी है, जो देवी देवता से मिलती है. चांडिल में स्थित पुरातत्व विभाग में ऐसे शिलालेख सुरक्षित रखे गये हैं.
ऐसे पहुंचे मंदिर
यह मंदिर नेशनल हाइवे 33 के किनारे स्थित है. जमशेदपुर से इसकी दूरी 35 किलोमीटर है. वहीं रांची से इसकी दूरी 90 किलोमीटर है. नेशनल हाइवे से मंदिर तक पहुंचने के लिए पीसीसी सड़क का निर्माण किया गया है. बाइक, ऑटो, कार से पहुंचा जा सकता है.
सावन में लगती है भक्तों की भीड़, संक्रांत में होता है मेले का आयोजन
इस मंदिर में सावन में लाखों भक्त जलाभिषेक के लिए पहुंचते हैं. पूरे सावन भक्त दूर दराज से कांवर लेकर इस मंदिर में आते हैं. वहीं सैकड़ों भक्त यहां से जल उठा कर बेड़ाबेला, लोहरिया जल चढ़ाने के लिए ले जाते हैं. मकर संक्रांत में यहां विशेष पूजा और मेले का आयोजन होता है, जिसमें लाखों भक्त, श्रद्धालू शामिल होते हैं.