प्रियंका कुमारी.
ईश्वर व्याप्त रहा कण कण में
देखूं या न देखूं पर वो देख रहा है,
अंत:पुर रमा और रमा भू रण में।
कर्मों की गोदी में खेल खेला कर,
रमा रहा है; हमें भ्रमण में ।।
चकाचौंध में भटक रहा है,
बीज बली मानवता का ।
हम ढूंढ़ रहे अंधरों में ,
मन में दीप जले कोमलता का।
तमश का दीप बुझाने को,
निकल पड़ें समरांगण में।
कर्म क्रिया से प्लावित हो,
बन ठन कर भू प्रांगण में।।
काल घेर कर है बैठा ,
हम उलझनें वालों में नहीं ।
स्वयं बजरंगी के अवतार हैं,
उलझनों को छोड़ते ही नहीं ।।
हिले गगन चाहे डोले धरा,
चाहे बदले प्रकृति क्षण क्षण में।
मैं निमित्त हूं सृष्टि सृजन का,
ईश्वर व्याप्त रहा कण कण में।।
नोट : अगर आप भी कहानी, कविता, सामयिक विषयों पर लेख आलेख लिखते हैं. लिख भेजे अपनी रचना अपनी एक तस्वीर के साथ वाट्सएप नंबर 8083757257 या ईमेल आईडी [email protected] पर.