- यादगार बन गया जिला प्रशासन, सरायकेला-खरसावां व साहित्य कला फाउंडेशन का संयुक्त साहित्य उत्सव छाप
- आदित्यपुर ऑटो क्लस्टर में चल रहे दो दिवसीय साहित्य समागाम छाप का हुआ समापन
जमशेदपुर.
जिला प्रशासन, सरायकेला-खरसावां ने साहित्य कला फाउंडेशन के सहयोग से जिले में पहली बार दो दिवसीय साहित्य उत्सव ‘छाप’ का आयोजन किया, जो हर प्रतिभागी के लिए अविस्मरणीय बन गया। इस शब्द-अनुष्ठान में बहुमुखी प्रतिभा के धनी देश के नामचीन साहित्यकारों व कलाकारों ने अपनी प्रतिभा की ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि हर कोई उनका मुरीद बन गया.
आदित्यपुर ऑटो क्लस्टर में आयोजन के पहले दिन शुक्रवार को प्रख्यात साहित्यकार, लेखक व फूड ब्लॉगर पुष्पेश पंत व कथाकार उदय प्रकाश ने आयोजन में अपनी उपस्थिति से चार चांद लगाए, तो दूसरे दिन धारावाहिक चंद्रकांता फेम और “यक्कू” डायलॉग से प्रसिद्ध अभिनेता अखिलेन्द्र मिश्र ने दर्शकों-श्रोताओं को आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत कर दिया।
सत्र की शुरुआत पद्मश्री छऊ गुरु तपन पटनायक ने की, जिसमें उन्होंने छऊ की उत्पत्ति से लेकर उसके उत्स व लास्य की न केवल गूढ़ बातें बताईं, बल्कि शिव-पार्वती व राधा-कृष्ण की वेशभूषा में उनके शिष्यों ने नृत्य की अदभुत प्रस्तुति से पूरे प्रेक्षागृह को सम्मोहित कर दिया। पूरे आयोजन में सरायकेला-खरसावां के जिला निर्वाचन पदाधिकारी सह उपायुक्त रविशंकर शुक्ला व उनके मार्गदर्शन में अन्य प्रशासनिक पदाधिकारियों की सक्रियता सराहनीय रही। अंतिम दिन कार्यक्रम में झारखंड सरकार की अपर मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी नेहा अरोड़ा (आईएएस) की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। पूरे आयोजन की एंकरिंग शाहिद अनवर व मीनाक्षी शर्मा ने दिलकश आवाज में की।
छऊ में सभी भारतीय शास्त्रीय नृत्य-संगीत का रस : तपन पटनायक
सरायकेला के छऊ गुरु पद्मश्री तपन पटनायक ने बताया कि छऊ की मुख्य रूप से सरायकेला, मानभूम, मयूरभंज व खरसावां शैली है। मूल रूप से इसमें सभी भारतीय शास्त्रीय नृत्य व संगीत का रस समाहित है। यह मार्शल आर्ट नहीं, शास्त्रीय नृत्य शैली है। कहा जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 260 वर्ष पूर्व हुई थी, जब सरायकेला में राजपरिवार आया था। 1938 में यह नृत्य इंग्लैंड पहुंच चुका था, जिसमें सरायकेला के कलाकारों ने वहां छऊ नृत्य का प्रदर्शन किया था। छऊ का भावार्थ छवि को प्रतिबिंबित करना है।
ग्रामीण भारत में शिक्षा का प्रसार स्वयं करना होगा
दूसरे दिन का द्वितीय सत्र ग्रामीण भारत में शिक्षा और शिक्षकों की चुनौतियां विषयक रहा, जिसमें शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय कार्य करने वाले पद्मश्री पुष्पेश पंत की भी भागीदारी रही। उन्होंने संक्षेप में अपनी बातें कहीं, जबकि पैनलिस्ट के रूप में इंडो-डेनिश टूल रूम के छात्र धर्मेंद्र उरांव उर्फ डेविड वार्नर, स्नातक छात्रा सलोनी शर्मा व अनिता टुडू ने ग्रामीण क्षेत्र में पठन-पाठन की चुनौतियों का यथार्थ चित्रण किया। मॉडरेटर के रूप में प्रख्यात साहित्यकार चंद्रहास चौधरी ने भी ज्यादातर संवाद छात्रों से ही कराए, जिसमें कई रोचक बातें सामने आईं। अंत में धर्मेंद्र उरांव ने कहा कि गांव-गांव में निशुल्क लाइब्रेरी खोलकर शिक्षा को शिखर तक पहुंचा सकते हैं।
कवि-साहित्यकार लोकप्रिय होते ही पिंजड़े में हो जाता कैद : प्रबाल बसु
बांग्ला के प्रख्यात कवि व साहित्यकार प्रबाल बसु ने पैनल डिस्कशन में अपने विचार रखते हुए कविता लेखन की विधा से लेकर इसकी प्रक्रिया में तमाम चुनौतियों से रूबरू कराया। बसु ने कहा कि कवि या साहित्यकार को लोकप्रिय होने से परहेज ही करना चाहिए, क्योंकि ज्यादातर मामलों में लोकप्रिय होते ही वह अपने ही बनाए पिंजड़े या केज में कैद हो जाता है। वह लोकप्रियता के पैमाने पर ही लिखने में खुद को समेट लेता है। इस कार्यक्रम में मॉडरेटर की भूमिका में साहित्यकार डॉ. संचिता भुई सेन थीं।
आध्यात्मिक ऊर्जा कराती है अभिनय : अखिलेन्द्र मिश्र
धारावाहिक चंद्रकांता फेम अखिलेन्द्र मिश्र ने अपनी बेस्टसेलर बुक ‘अभिनय, अभिनेता और अध्यात्म’ से बात शुरू करते हुए दर्शकों-श्रोताओं को चिरपरिचित आवाज में अध्यात्म से परिचित कराया। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति अपने जीवन में अलग-अलग किरदार निभाता है और कलाकार की तरह ही वह इस दुनिया रूपी रंगमंच से निकल जाता है। दरअसल, हम भी जब किसी किरदार को पर्दे पर निभाते हैं, तो हम शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से उस किरदार में ढल जाते हैं। मुझे बहुत बाद में इस बात का अहसास हुआ कि मैं अभिनय नहीं करता हूं, आध्यात्मिक ऊर्जा हमसे अभिनय कराती है।
इस बात को स्व. दिलीप कुमार, सुभाष घई और आमिर खान ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति का पूरा शरीर ब्रहांड है। उसके अंदर सूक्ष्म और सूक्ष्मतम शरीर भी होता है, जो ज्ञानेंद्रियों को संचालित कराती हैं। उन्होंने दर्शकों के आग्रह पर चंद्रकांता का फेमस डायलॉग यक्क… बोला तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। इस दौरान मॉडरेटर की भूमिका में साहित्यकार सत्य व्यास ने उनसे संवाद किया। अखिलेन्द्र मिश्र ने बताया कि उन्होंने अपने गांव में पहला नाटक गवना के रात किया था। इसके बाद स्कूल-कॉलेज से होते हुए मुंबई में इप्टा से जुड़कर अभिनय यात्रा पर निकल गया। समापन सत्र में अखिलेन्द्र मिश्रा ने ‘स्वामी विवेकानंद का पुनर्पाठ’ शीर्षक से एकल मंचन किया.
आदिवासी लेखक ही तोड़ सकते गलत धारणाएं : महावीर टोप्पो
भोजनवकाश से पहले ‘साहित्य में आदिवासी संस्कृति एवं रीतिरिवाजों का चित्रण’ विषयक परिचर्चा हुई, जिसमें साहित्यकार महावीर टोप्पो व डॉ. हांसदा शोभेंद्र शेखर के साथ लेखिका डॉ. पार्वती तिर्की ने मॉडरेटर की भूमिका निभाई।
महावीर टोप्पो ने कहा कि आदिवासियों पर गैरआदिवासियों ने भी काफी पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर की रचना घटनाक्रमों पर आधारित हैं। कई विदेशी लेखकों ने भी आदिवासियों को अनपढ़ या दकियानूसी परंपरा का वाहक बताया है। उनके बारे में कई तरह की गलत धारणाएं प्रस्तुत की हैं, जिसे तोड़ने के लिए आदिवासी लेखकों को आगे आना चाहिए। डॉ. शोभेंद्र ने कहा कि मैंने भी ज्यादातर वही बातें लिखी हैं, जो मैंने देखा या अनुभव किया। इससे पूर्व टोप्पो ने देश भर के विभिन्न राज्यों में आदिवासियों पर प्रकाशित पुस्तकों के बारे में टिप्पणी की।
आत्मकथाओं में प्रामाणिकता पर बोले यतीश कुमार
दूसरे दिन भोजनावकाश के बाद हुए सत्र की शुरुआत साहित्यकार-कथाकार यतीश कुमार ने आत्मकथाओं में प्रामाणिकता बनाम आत्मावलोकन की ईमानदारी विषय से की, जिसमें बोरसी भर आंच को संदर्भ बनाते हुए कई रोचक व ज्ञानवर्द्धक बातें कहीं। इसी कड़ी में कुंवर सिंह चौहान ने साहित्य के विमर्श युग में हाशिए पर खड़ा दिव्यांगता विमर्श ‘संदर्भ : तुम्हारी लंगी’, मृत्युंजय कुमार सिंह ने जड़ों से जुड़ने की छटपटाहट और गिरमिटिया समाज की पीढ़ियों का रूदन ‘संदर्भ : गंगा रतन बिदेसी’, रणेन्द्र ने समावेशी संस्कृति में शास्त्रीय संगीत का योगदान ‘संदर्भ : गूंगी रूलाई का कोरस’ और लाइब्रेरीमैन संजय कच्छप व अक्षय बहीवाला ने ग्रामीण भारत में पुस्तकालय : सृदृढ़ लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त पर अपने विचार साझा किए।