सेंट्रल डेस्क, जमशेदपुर.
क्या आपने कभी बैल को अंडा तोड़ते सुना है या देखा है? अगर यह सवाल पूछा जाए, तो अधिकतर लोगों का जवाब होगा नहीं. लेकिन एक ऐसी परंपरा है जहां इस विशेष प्रकार की पूजा की जाती है जहां जमीन पर रखे अंडे पर बैल के झूंड को छोड़ा जाता है, जिसके अंडे पर बैल चढ़ जाए और अगर अंडा फूट जाए तो उसे शुभ माना जाता है. इस परंपरा का नाम मे हैं गोट बोंगा यानी पूजा. आदिवासी समाज द्वारा प्रत्येक वर्ष यह पूजा दीपावली के एक दिन दिन पूर्व की जाती है. धन धान्य, सुख शांति और कृषि उपज अच्छी होने के लिए इस पर्व की परंपरा है.
सदियों से चली आ रही है इस पूजा के तहत खेत में अंडा रख कर पूजा करने की परंपरा है. इस दौरान बैल के झूंड को छोड़ा जाता है जिसके रखे अंडे को बैल अपने पैर से तोड़ देता है उसे शुभ माना जाता है. उस व्यक्ति को ग्रामवासी कंधे पर उठाकर मांदर की थाप पर पूरे सम्मान के साथ घर तक पहुंचाते हैं. इस पर्व में मुर्गा की बली देने की भी प्रथा है. वहीं प्रसाद के रूप में सोड़े (खिचड़ी भोग) सामूहिक रूप से समाज के लोग खाते हैं. साथ ही रात में जागरण की परंपरा है. मौके पर सभी ग्रामवासी मौजूद रहे.
ये हैं परंपरा :
आदिवासी समाज का प्रमुख पर्व सोहराय के दौरान ही गोट बोंगा की प्रथा है. गोट का तात्पर्य सामूहिक और बोंगा का अर्थ पूजा होता है यानी सामूहिक पूजा है. पांच दिवसीय साेहराय पर्व को लेकर लोग घरों में साज सजावट और गाय व बैलों काे सजाया जाता है. पहले दिन गोट बोंगा के अवसर पर ग्रामीण अपने-अपने गाय और बैलों को इकट्ठा करते हैं और शाम में उनके आगमन से पूर्व प्रवेश द्वार की साफ-सफाई कर सजाकर तैयार रखते हैं. दूसरे दिन गोड़ा बोंगा मनाया जाता है. तीसरे दिन खुंटाे बोंगा मनाया जाता है. इस दौरान लोग अपने गाय और बैलों के साथ नृत्य कर खुशियां मनाते हैं. वहीं, चौथे दिन गांव की महिलाएं व पुरुष एक टोली बनाकर एक-दूसरे के घर बांसुरी बजाते हैं. अंतिम दिन लोग अपने खेत की नई फसल निकाल खिचड़ी बनाते हैं. माना जाता है कि प्रकृति और गाय बैल से ही कृषि संभव है. इसलिए इस पूजा में गाय बैल को विशेष महत्व देते हुए उनकी पूजा की जाती है.