राकेश पांडेय, जमशेदपुर.
महादेव का धर ध्यान मैं, घूम रहा था वन में।
सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से, आनंदित था मन-ही-मन में।
अचानक झाड़ों के बीच से निकल, अश्वत्थामा मिला कानन में।
वीभत्स रूप के साथ, हजारों प्रश्न लिए मन में।
परिचय पूछा मेरा, जाति गोत्र समेत।
निज जाति जान, करने लगा प्रश्न अनेक।
गुरु द्रोण के पुत्र को, भला मैं उत्तर क्या दे पाता।
मगर महादेव की कृपा से, उस दिन बना था ज्ञाता।
पहला प्रश्न था द्रुपद और द्रोण के दोस्ती का, जो द्रुपद नहीं निभाए थे।
द्रुपद द्वारा पिता के तिरस्कार से, उसके नयन भर आए थे।
दूसरा प्रश्न कुरु कुमारों के साथ, शिक्षा न मिल पाने का।
राजगुरु के पुत्र होकर, अभाव में जीवन बिताने का।
तीसरा प्रश्न विवशता में, अन्याय के साथ देने का।
रणभूमि में भी पिता द्वारा आशीष,विजय के न मिलने का।
चौथा प्रश्न पुछते त्योरियां उसकी चढ़ रही थी।
दुर्योधन का बदला लेना सत्य, कथा गढ़ रही थी।
पांचवां प्रश्न में पांडव पुत्रों के वध को, न्यायोचित ठहराया था।
उतरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र चलाना, मन में शंका गहराया था।
छठे प्रश्न में अपनी अमरता को कोष रहा था।
कृष्ण के शाप से मुक्ति का राह, वह खोज रहा था।
ऐसे अनेक प्रश्न उसने मेरे समक्ष, धर दिया।
महादेव की कृपा से, दूर उसका संशय कर दिया।
गणपति की बुद्धि मां शारदे की वाणी, मुझमें आई थी।
सती की शक्ति महादेव की, कृपा हो आई थी।
एक एक करके उसके प्रश्नों का, उत्तर जब बतलाया।
तब अपनी ग़लती का अहसास, उसे हो पाया।
बोला मैं मित्रता,बराबर वालों से करना चाहिए।
दुःख में कभी भी द्वार, मित्र के न जाना चाहिए।
राजा और संन्यासी की मित्रता, गुरुकुल तक ठीक थी।
द्रुपद के द्वार मांगने जाना, द्रोण की ग़लती थी।
अनजाने अभिमान में, कई वादे जो कर जाते हैं।
चढ़ सफलता की सीढ़ी, अक्सर लोग भुल जाते हैं।
शिक्षा जब राज्यपोषित हो तो, सबका अधिकार नहीं होता।
राजकुमारों की शिक्षा विप्रों को, उचित नहीं होता।
राजपूत तो राज्य रक्षा ओर, मनोरंजन हेतु भी शस्त्र उठाते हैं।
मगर ब्राह्मण की शिक्षा, नीति सिद्धांत नैतिकता दर्शाते हैं।
विप्र को भोगी नहीं अश्वत्थामा, योगी होना चाहिए।
इसलिए अभाव के जीवन का, तुझे न रोना चाहिए।
अन्याय का साथ देना हे योद्धा, सदा होता धर्म प्रतिकुल।
मित्रता या अनुग्राही होकर भी, विप्र धर्म नहीं जाता भुल।
रणभूमि में गुरु पुत्र कुछ निश्चित नहीं रह पाता है।
तेरे पिता तो शस्त्र शास्त्र दोनों के, ही ज्ञाता थे।
अधर्म के पक्षधर को है अश्वत्थामा, पराजय ही सदा मिलता है।
कुरुक्षेत्र में इसलिए उनको, लंबी उम्र का वर ही मिलता है।
आग को आग से बुझाया नहीं जाता है।
ज्ञानी पिता का पुत्र, इतना समझ न आता है।
बदला लेना ही था दुर्योधन के संहार का।
जगत में पाठ पढ़ाते तुम, नाश अहंकार का।
बदला भी पूरा हो जाता तेरा, जीवन सफल हो जाता।
विप्र कुल में जन्म लेने का, गर्व तुम कर पाता।।
सोते पांडव पुत्रों का गला काटना, कैसे न्यायोचित है?
बालक,नारी, विप्र,गौ वध, शास्त्र अनुचित है।
ब्राह्मण ही जब शास्त्रों की, रक्षा नहीं करेगा।
न्याय के पथ राज्य ओ राजा कैसे बढ़ेगा?
भ्रुण हत्या हे अभिमानी, सुनो सभी पापों में बड़ा है।
ब्रह्मास्त्र वेद, शास्त्र, राज्य रक्षा छोड़, अन्यत्र चलाना मना है।।
चलाकर तुमने उसे, नियम को तोड़ डाला था।
जानबूझकर तुमने नव क्लश को, फोड़ डाला था।
इन्हीं पापों के चलते केशव ने, तुम्हें दिया अमरता का वरदान।
ज्ञान रुपी मणी के कारण ही तुझे, चढ़ आया था अभिमान।।
मस्तक के घावों से रिश्ते दुर्गंध मवाद, पापों का फल है लो जान।
अभिमान में पड़ अनैतिकता का मार्ग अनुचित, देता यह ज्ञान।
ऐसे ही सभी प्रश्न तेरे, तेरी हीं करनी के फल हैं।
अश्वत्थामा पापों का प्रायश्चित, ही इनका हल है।
मन में शायद एक प्रश्न उठता होगा, मिले वर अमरता से।
प्रीत जग उठी होगी तुझे, अब नश्वरता से।
शाप या वरदान मिला इसमें तुझे, इसमें न उलझे रहो।
इस दशा से मुक्ति हेतु, हरि को भजते रहो।।
लेखक जमशेदपुर के ग्रेजुएट कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं और रंगकर्मी है.
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