- सरायकेला-खरसावां लिटरेचर फेस्टिवल की दिग्गज कलमकारों ने बढ़ाई शान
- कथाकार उदय प्रकाश के विचार सुनते-सुनते खो गए सुधी श्रोता: साहित्यप्रेमी
आदित्यपुर/जमशेदपुर.
मैं जहां पैदा हुआ, वहां सिर्फ पहाड़ थे। सड़क नहीं थी, सो मोटरकार भी नहीं चलते थे। ऐसे में हमारे लिए किताबें ही हमारे लिए खिड़की-दरवाजा थे. ये बातें देश के नामचीन साहित्यकार व फूड ब्लॉगर पुष्पेश पंत ने कही. अवसर था सरायकेला-खरसावां लिटरेचर फेस्टिवल ‘छाप’ का.
जिला प्रशासन, सरायकेला-खरसावां द्वारा साहित्य कला फाउंडेशन के सहयोग से आदित्यपुर ऑटो क्लस्टर में आयोजित साहित्यिक उत्सव के उद्घाटन सत्र में भारतीय इतिहास, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और कानून के स्कॉलर और लेखक पुष्पेश पंत ने ‘जीवन में किताबों की भूमिका’ विषय पर कहा कि ‘मेरे पिता एक इंस्टीट्यूट में निदेशक थे. उस इंस्टीट्यूट में बिजली तो थी, पर मोटर या सड़क नहीं थी, तो साल में एक बार घोड़ा-पालकी लेकर जाना होता था. ऐसे में किताबें ही हमें बताती थीं कि बाहर कि दुनिया क्या है. ये स्थिति मेरे बचपन की थी. किशोरावस्था में किताबें मेरी एकमात्र साथी थी. मेरी मां शांतिनिकेतन की पढ़ी हुई थीं, तो उन्होंने तय किया कि वे अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाएंगी, तो मैं कभी स्कूल गया ही नहीं. सीधे बीए करने के लिए कॉलेज गया, जो मैंने 18 वर्ष की उम्र में पूरी कर ली. किशोरावस्था में जाना कि प्रेम क्या होता है, प्रेम में असफल होना क्या होता है, कामोत्तेजना क्या होती है, ये सारी बातें किताबों ने समझाई. समझाई या भ्रष्ट किया, पता नहीं, तब भी किताबें साथ रही.
फिर मैं दिल्ली आया और सभी ने कहा कि आईएएस दे दो. उस वक्त मेरी उम्र 18 वर्ष थी, मुझे 3 साल रुकना था जब तक की आईएएस देने की सही उम्र नहीं हो जाती. फिर किताबों का ही सहारा था, रट्टा लगाया. कुल मिलाकर ये हुआ कि 21 वर्ष होने से पहले ही मैं विदेश चला गया, क्योंकि सिविल सर्विसेज से मेरा मोहभंग हो गया था. मुझे लगा कि मैं किताबें पढ़ना ही पसंद करूंगा.
अब वह लड़का बूढ़ा हो चुका है, 55 वर्ष का हो गया है. उसकी लड़की 18 वर्ष की है और उनके पास मेरे लिए समय नहीं है, तो अब भी जो मेरे लिए दुनिया में कोई रिश्ता है तो वो सिर्फ किताबों का रिश्ता है. कभी कविता का, कभी उपन्यास का रिश्ता है, तो मुझे लगता है किताबों को जितना हम अपना बनाते हैं, उससे कहीं ज्यादा किताबें हमें अपना बनाती हैं.
उद्घाटन सत्र का विषय प्रवेश सरायकेला-खरसावां के उपायुक्त रविशंकर शुक्ला ने कराया, तो इसी सत्र में साहित्यकार मृत्युंजय कुमार सिंह, प्रबाल बसु व यतीश कुमार ने किताबों से अपने रिश्तों की बातें सुनाईं। सभी ने सारगर्भित वक्तव्यों से श्रोताओं की तालियां बटोरीं.
दूसरा सत्र ‘सिनेमा और साहित्य’ पर रहा, जिसमें मॉडरेटर डॉ. विजय शर्मा के साथ दुष्यंत ने सिनेमा में साहित्य की भूमिका पर कई गूढ़ बातें बताईं. अगली कड़ी में टेक्सास से आए डेविड विन्शेन व अच्युत मेनन ने मॉडरेटर डॉ नेहा तिवारी के साथ साहित्य, नारीवाद व समाज के संबंधों पर आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया. वहीं चंद्रहास चौधरी व अक्षय बहीवाला के साथ जोबा मुर्मू ने भी अपने जीवन में किताबों की भूमिका मनोरंजक अंदाज में सुनाई। इसमें प्रश्नोत्तर सत्र भी हुआ.
लोकतंत्र व साहित्य में अन्योनाश्रय संबंध : उदय प्रकाश
भोजनावकाश के पूर्व का सत्र मशहूर कथाकार उदय प्रकाश के साथ बनारस से आए डॉ अविनाश सिंह का अत्यंत रोचक व ज्ञानवर्धक रहा. उदय प्रकाश ने लोकतंत्र और साहित्य पर कहा कि दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना नहीं हो सकता. लोकतंत्र लड़ना नहीं सिखाता है, यह तो बंधुत्व, समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में जीना सिखाता है. उन्होंने झारखंड, खासकर सरायकेला से अपने पारिवारिक संबंध बताए, तो यह भी बताया कि बचपन में पलामू, खूंटी, चक्रधरपुर आया करता था. मेरी बुआ सरायकेला राजघराने में ही ब्याही गई थी. उन्होंने अपनी पुस्तक के उद्धरण लेते हुए सोचने को बड़ा खतरनाक विषय बताया, कहा- भगवान बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने जब गिरफ्तार किया था, उस समय वे एक टीले पर बैठकर सोच ही रहे थे. फिर जातियों-उपजातियों पर बात हुई.
दुबे सिस्टर्स की खनकदार आवाज में खो गए श्रोता
उत्सव के पहले दिन सभी सत्र रोचक रहे, जबकि अंत गजल संध्या से हुआ, जिसमें शालिनी व श्रेया दुबे ने गजलों से मन मोह लिया. इस दौरान डॉ सनातन दीप व पंकज कुमार झा ने भी श्रोताओं की तालियां बटोरीं. उनसे पहले जोबा मुर्मू ने आदिवासी समाज में स्त्री, पुष्पेश पंत ने स्ट्रीट फूड, डॉ बिनी सारंगी ने स्त्री के प्रभुत्व की तलाश और नीलोत्पल मृणाल ने औषड़ डार्क हॉर्स की जादूगरी विषय पर अपने विचार रखे. कार्यक्रम की एंकरिंग शाहिद अनवर व मीनाक्षी शर्मा ने खूबसूरत आवाज में की, जबकि सुधी श्रोताओं में तमाम कॉलेजों के प्राचार्य, शिक्षक व छात्र-छात्राएं भी काफी संख्या में उपस्थित थे.