प्रियंका कुमारी.
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार
क्यों सुलग रही हृदय में दहकती अंगार,
उजाले की खोज में और फैलाता अंधकार,
मिटती नहीं अहम् नहीं मिटता अहंकार,
जो है हमें जलाती; सुलाती नहीं है रातों को,
वही बनता है अपना शासन का हथियार,
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार ।।
मां ने दिया कोख में सबको सम अधिकार,
अपने रुप रंग सौंदर्य और अपना प्यार,
अपनी तरुणाई सब-कुछ उसने दिया वार,
कीमत क्या लौटाओगे क्या दोगे सुख संसार ,
चंद सुखों की खातिर बेचा है व्यवहार।
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार ।।
खंजर भोंक हृदय में; करता है वार पर वार,
शब्दों का वो तीर चला वेंधता है सीना पार,
नहीं माफ तौल चढ़े; शिखर भूलता है प्यार,
इस जीवन का ऋण भला कौन करे उद्धार,
चंद सुखों की खातिर बेचा है व्यवहार।
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार ।।
स्वार्थ आंँजन लगा आंखों में देखे जो संसार,
सत्ता के अंधी दौड़ में छूटता घर परिवार,
अंतर में है ज्ञान नहीं हो चाहे सब शर्मसार ,
क्या ऋण चुका उठाओगे इस जीवन का भार,
चंद सुखों की खातिर बेचा है व्यवहार।
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार ।।
गहमागहमी में तन टकराते दिखाते हैं आधार,
सही ग़लत का फ़र्क नहीं स्वयं कर्ता है उद्धार,
भूमि भूमि पर कब्जा; जताते हैं अधिकार ,
सम्हाले कौन लाज जननी का स्वार्थ है हथियार,
क्या ऋण चुका उठाओगे इस जीवन का भार,
चंद सुखों की खातिर बेचा है व्यवहार।
ये कैसी संस्कृति ये कैसा संस्कार ।।
प्रियंका कुमारी, मानगो जमशेदपुर।

