आज के परिवेश में एक आशावादी घर के बुजुर्ग अभिभावक का दर्द चंद शब्दों में…..
मनोज किशोर.
घर टूटा तो, टूट के बिखर गया.
फिर कभी जुड़ ना पाया.
शायद गौरैया को पता था.
इसलिए एक दिन वह उड़ा तो,
फिर लौट के ना आया.
आज भी वो घर, वो घोंसला
आशा भरी निगाहों से
अपनों और गौरैया की लौटने का
करता है इंतजार. शायद घोंसलों में
गोरैयों की चहचहाट,
घर में अपनों की खिलखिलाहट फिर से गूंजने लगे,
टूटा घर जुटने लगे, बिखरे थे जो
वो फिर से मिलने लगे.
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