- गड्ढे में एकत्रित पानी से प्यास बुझा रहे ग्रामीण, ख़राब पड़े हैं सारे सोलर पम्प
- इंडिया का यह ग्रामीण भारत है. इसकी तस्वीर और तकदीर कब बदलेगी यह तो जिम्मेदार ही बताएंगे
- तीन किलोमीटर दूर है प्राथमिक विद्यालय और आंगनबाड़ी, मजबूरन बच्चे शिक्षा से है वंचित
Vikash Srivastava. Campus Boom.
एक गांव जहां के लोग आज भी गड्ढ़े में जमा होने वाले पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं. जहां के बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं. जहां किसी के बीमार होने पर डॉक्टरी इलाज नहीं मिलता है और गर्भवती महिला, बूढ़े-बुजुर्ग की तबीयत बिगड़ने पर उन्हें खटिया पर उठाकर ले जाना पड़ता है. जहां के लोग आज भी चावल नमक, कंदमूल खाकर खाकर अपनी जिंदगी चला रहे हैं. जहां सब्जी और दाल का बनना मेहमान के आने की खुशखबरी है, जहां के लोग जंगल की लकड़ी और पत्ते बेच कर अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं. यह कहानी साउथ अफ्रिका के किसी जंगल में रहने वाले लोगों की नहीं, न ही कोई किताबी कहानी है और न यह कोई फिल्म की स्क्रिप्ट है. यह स्थिति है उस झारखंड के एक गांव की, जिसका गठन आदिवासियों, मूलवासियों और यहां के स्थानीय लोगों के हक, अधिकार दिलाने के नाम पर हुआ था. लेकिन राज्य के ऐसे कई गांव हैं, जो आज 25 वर्ष बाद भी विकास की बाट जोह रहा हैं, जहां के लोग एक अच्छी जिंदगी की राह दे रखे हैं. इंडिया में ग्रामीण भारत की यह तस्वीर देखकर आश्चर्य होता है कि जो देश चांद तक पहुंच गया, वहां के गांव तक विकास के नाम पर मूलभूत व बुनियादी सुविधा तक नहीं पहुंच पाई है.
पूर्वी सिंहभूम के पोटका प्रखंड का कोराड़कोचा गांव
ऐसा ही एक गांव पूर्वी सिंहभूम जिले के पोटका प्रखंड के नारदा पंचायत में स्थित है. कोराड़कोचा (चट्टानीपानी) गांव जहां करीब 40 परिवार हैं जिसमें से 19 सबर परिवार हैं जो गालुडीह सबर टोला में रहते हैं. लगभग 150 लोगों की आबादी वाला यह गांव बिहड़ जंगल पहाड़ों के बीच बसा है जो मुख्य सड़क से करीब छह किलोमीटर और प्रखंड़ मुख्यालय पोटका से तकरीबन 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. पहाड़ और जंगल की दुर्गम पगडंडियों के सहारे इस गांव में विकास के नाम पर बिजली के तार पहुंचने के अलावा कुछ भी नहीं है. यहां के लोग नहाने, खाने पकाने और पीने के लिए गड्ढ़े में एकत्रित पानी (पहाड़ से बहते पानी) पर आश्रित हैं. यह गांव एक समय में अति नक्सलप्रभावित क्षेत्र था, जो अब नक्सलमुक्त घोषित हो चुका है. लेकिन अफ़सोस अपनी परेशानी और समस्याओं से मुक्त नहीं हो पाया है.

पांच जलमीनार सभी खराब
गांव में कुल पांच जलमीनार है जिसमें चार सबर टोला में है जो सभी खराब पड़े हैं. दो गांव के प्रधान के घर के पास है इसमें भी एक पिछले तीन वर्ष से खराब है और एक गर्मी के दिनों में पानी देना बंद कर देता है. ऐसे में पूरा गांव गड्ढ़े के पानी पर आश्रित है, जो पहाड़ से होकर पतली धार में नीचे पहुंचता है. अत्यधिक गर्मी होने पर यह भी धारा पूरी तरह सूख जाती है और महिलाओं को करीब छह से सात किलोमीटर दूर से पानी ढोकर लाना पड़ता है.

न एक भी स्कूल, न आंगनबाड़ी
शिक्षा की बात करें तो गांव में एक विद्यालय तक नहीं है. बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. गांव में एक प्राथमिक विद्यालय था, जो 10 वर्ष पहले तीन किलोमीटर दूर तुलग्राम स्थित स्कूल में विलय कर दिया गया. एक आंगनबाड़ी वह भी तुलग्राम में है. ऐसे में यहां बच्चों को प्राथमिक और आंगनबाड़ी की शिक्षा तक नहीं मिल रही है, वहां के बच्चे कैसे आगे की पढ़ाई करेंगे. हाई स्कूल करीब 10 किलोमीटर दूर हरिणा में है. गांव में महज दो युवा हैं जो 50 किलोमीटर दूर करनडीह स्थित एलबीएसएम कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहे हैं. यहां के छोटे बच्चे स्कूल या विद्यालय जैसे शब्द का मतलब भी नहीं जानते हैं.

लकड़ी और पत्ता बेचकर प्राथमिक जरूरतों को कर रहे पूरा
इस गांव के लोगों के रोजगार का एकमात्र साधन जंगल और पहाड़ हैं. हर जान जोखिम में डाल कर पुरुष महिला जंगल में लकड़ी और पत्ता चुनने के लिए जाते हैं. जंगल में हाथी, भालू और जंगली सुअर के अलावा भी अन्य जीव जंतू हैं, जिनसे हमेशा जान माल का खतरा रहता है, लेकिन उनकी जरूरत भी जंगल पर ही निर्भर है, इसलिए वे जंगल जाते हैं. महिलाएं पत्तों (केंदू और साल) से दोना-पत्तल और कटोरी बनाकर जीविका चलाने का प्रयास करती हैं.
केंदु पत्ता के लिए खरीदार आते हैं, लेकिन जिम्मेदार अभी नहीं पहुंचे
यहां के जंगल में केंदु के पेड़ भारी मात्रा में हैं. महिलाएं और पुरुष केंदु पत्ता को जंगल से लाने के बाद उसे जमा करती है. ग्रामीणों के बताया कि केंदु पत्ता के लिए बाहर से खरीदार आते हैं. यहां महुआ भी काफी मात्रा में है, जिसकी बिक्री होती है. इस बात से यह समझा जा सकता है कि यह गांव व्यापारियों (बीड़ी बनाने वाले) की पहुंच में तो हैं, लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों की नजर से दूर है.
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं
इस गांव की स्वास्थ्य सुविधा खटिया पर है. इस पंचायत में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, जहां अक्सर ताला लटका रहता है और डॉक्टर नहीं आते हैं. किसी महिला को प्रसव पीड़ा हो या किसी को गंभीर बीमारी होने पर इलाज के लिए उन्हें खटिया पर लिटाकर 7–8 किलोमीटर दूर ले जाना पड़ता है, तब जाकर कोई गाड़ी मिलती है. बेहतर इलाज के लिए सबसे नजदीक 60 किलोमीटर दूर खासमहल सदर अस्पताल आना पड़ता है.

आश्चर्य करने वाली स्थिति
कैंपस बूम की टीम जब इस गांव में रिपोर्टिंग के लिए पहुंची और लोगों से बात कर रही थी. उसी दौरान एक आश्चर्यजनक स्थिति से सामना हुआ. जिनके घर के छप्पर उड़ चुके है, बारिश में सिर छुपाने के लिए टूटे छत का सहारा है उनके घर में बिजली का मीटर लगाया जा रहा था. इस गांव के सबर समुदाय के लोग जिन्हें बिरसा आवास योजना के तहत (19 में महज 4 को) मकान बना कर दिए गए हैं, उनमें से एक अधूरा है और दो के छत आंधी पानी में उड़ चुके हैं. छत ढकने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं है. जिस घर का छत नहीं है, उसके नीचे बिजली का मीटर लगना न केवल हास्यास्पद है बल्कि आश्चर्य में डालने वाले हैं कि जिन सबर परिवार के पास पैसे के नाम पर एक रुपए नहीं है, उनके घर बिजली का मीटर आखिर क्यों लगाया जा रहा है, यह ठीक है कि दो सौ यूनिट फ्री है, लेकिन इन परिवारों को बिजली के मीटर के साथ, बुनियादी सुविधा की जरूरत है.ग्रामीणों की मांग
ग्रामीणों की मांग है कि गांव तक सड़क पहुंचे. सोलर पंप खराब पड़ा, अगर उसी बोरिंग में हैंड पंप लगा दिया जाए, तो लोग पानी भर सकते हैं. स्कूल का बंद पड़ा स्कूल को खोला जाए. रोजगार को लेकर यहां के युवा और महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे गांव में रहकर उत्पाद बना सके. पत्तल और खदोना यहां की महिलाएं बनाती हैं अगर बाजार मिले तो आय का स्रोत बन जाएगा. महुआ की बिक्री लोग करते हैं, अगर महुआ के उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण दिया जाए, तो लोगों को गांव में ही रोजगार मिल जाएगा.
कोट

गांव के ग्राम प्रधान गोपाल सरदार बताते हैं कि गांव की स्थिति को लेकर कई बार स्थानीय पंचायत, प्रखंड ऑफिस में गया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती है. ग्राम सभा में गांव की समस्या को रखा, लेकिन आज तक कोई झांकने तक नहीं आया. ग्राम प्रधान ने बताया कि सरकारी अधिकारी, विधायक तो दूर की बात गांव में पिछले पांच साल में मुखिया तक नहीं आई है. ऐसे में समझा जा सकता है कि इस गांव की स्थिति क्या होगी. यह क्षेत्र पोटका विधानसभा क्षेत्र में आता हैं जहां जेएमएम के संजीव सरदार दूसरी बार विधायक चुनकर आए हैं, वहीं यहां की मुखिया मीरु सरदार और पंचायत समिति सदस्य गोपीनाथ सरदार हैं. भूमिज गांव और भूमिज समाज का ही प्रतिनिधित्व फिर भी विकास और मूलभूत सुविधा से वंचित है पूरा समुदाय. ऐसे में समझा जा सकता है जाति और समुदाय के नाम पर वोट मांगने वाले जनप्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद वे कितने अपने लोगों के बारे में सोचते हैं.

गुरुचरण सरदार बताते हैं कि गांव में सरकार की ओर कोई सुविधा नहीं है. उनकी हालत देखने कोई नहीं आता है. जंगल में हाथी हैं, जो हमेशा नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन उन्हें आज तक कोई सुविधा नहीं मिली. 23 वर्षीय गुरुचरण बताते हैं कि वह 17-18 वर्ष की आयु में उन्हें हाथी में पटक दिया था, लेकिन वह बच गए.

विनोद सरदार भी गांव का युवा है. लेकिन रोजगार का कोई साधन नहीं है. उसने कहा कि उसकी तरह उसके गांव के किसी युवा के पास कोई रोजगार नहीं है. वे लोग प्रतिदिन जंगल से लकड़ी और पत्ता चुनकर लाते हैं. उसे बेच कर जो 50-100 रुपए आता है वही प्रतिदिन की कमाई है.

गांव का युवा मोको सरदार, प्राथमिक शिक्षा के बाद ही स्कूल छोड़ दिया. इस युवा के सामने भविष्य को लेकर कोई लक्ष्य नहीं है. क्या करना चाहता है, कोई स्पष्ट जवाब नहीं है. उसने बताया कि उनकी प्राथमिकता तो प्रतिदिन अपने खाने की व्यवस्था करना है. जंगल पर ही पूरा परिवार आश्रित है.

शिवचरण सरदार गांव उन दो युवाओं में शामिल है. जो करनडीह स्थित एलबीएसएम कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहे हैं. शिवचरण ने बताया कि वह पढ़ कर कुछ करना चाहता है. गांव की हालत पर वह काफी चिंता जाहिर करता है. उसने बताया कि उसे प्रतिदिन कॉलेज जाने के लिए 100 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. वह सरकार से गांव में मूलभूत सुविधा बहाल करने की मांग करता है.
मोकोरो सरदार गांव के पूर्व प्रधान है. जिन्होंने अपनी बढ़ी उम्र और शारीरिक अक्षमता के कारण प्रधान की जिम्मेदारी अपने बेटे गोपाल प्रधान को दे दी है. मोकोरो बताते हैं कि गांव के विकास को लेकर किसी को कोई चिंता नहीं है. यहां के युवा आगे चलकर क्या करेंगे, इसके बारे में कोई नहीं सोचता है. उन्होंने बताया कि यह क्षेत्र एक समय में नक्सलप्रभावित क्षेत्र था, जों अभी उससे मुक्त है. इसलिए सरकार को यहां के युवाओं के शिक्षा, रोजगार के बारे में सोचना चाहिए.