सुधीर पाल
जातिगत जनगणना और उसकी संभावित परिणतियाँ आज केवल सामाजिक न्याय की पुनर्परिभाषा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक ढाँचे की पुनर्संरचना का संकेत भी हैं। विशेष रूप से अनुसूचित क्षेत्रों और ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) जैसे संरक्षित विकास कार्यक्रमों की दृष्टि से, यह एक नये विमर्श की माँग करता है — क्या जातिगत आँकड़ों का खुलासा इन विशिष्ट इलाकों की संवैधानिक स्थिति को और अधिक मजबूत करेगा, या कहीं यह उनकी आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक-राजनैतिक विशिष्टता को कमजोर कर देगा?
जातिगत जनगणना का मूल उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति का खुलासा करना है। इससे नीतियाँ अधिक सटीक बन सकती हैं और संसाधनों का वितरण न्यायसंगत हो सकता है। किंतु इस प्रक्रिया में जब जनसंख्या आधारित प्रतिनिधित्व और विकास योजनाओं का मूल्यांकन किया जाएगा, तब अनुसूचित क्षेत्रों की स्थिति कई दृष्टियों से प्रभावित हो सकती है।परिसीमन और जातिगत जनगणना अनुसूचित क्षेत्रों के लिए खतरे की घंटी है। परिसीमन से जहां अनुसूचित जनजातियों के लिए विधान सभा में आरक्षित सीटों की संख्या में कमी आएगी वहीं जातिगत जनगणना आदिवासियों और अनुसूचित क्षेत्रों की विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं से कमजोर तबकों को बाहर कर देगी।
इसे एक उदाहरण से समझना आसान होगा। केंद्र की 14वीं एवं 15वीं वित्त आयोग के मानक से झारखंड सहित सभी 10 अनुसूचित क्षेत्रों के पंचायतों को सामान्य राज्यों की पंचायतों की तुलना में लगभग 30 फीसदी कम विकास राशि मिलती है। आयोग ने विकास निधि के लिए 90 फीसदी आबादी और 10 फीसदी भौगोलिक क्षेत्र को आधार बनाया है। झारखंड के अनुसूचित क्षेत्र के गाँव भौगोलिक दृष्टि से तो काफी बड़े और हार्ड तो रीच होते हैं लेकिन इन गांवों में आबादी काफी कम होती है। इसका असर होता है कि इन पंचायतों को सामान्य की तुलना में कम पैसे मिलते हैं। पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्यों द्वारा इन विसंगतियों पर आवाज़ उठाने के बाद 16 वीं आयोग में इसे ठीक करने का प्रास्ताव आया है। जातिगत जनगणना का सीधा असर यही होगा कि जिसकी जितनी आबादी संसाधनों पर उनकी उतनी हिस्सेदारी।
जातिगत जनगणना – भागीदारी के दावे और हाशिएकरण की हकीकत: सुधीर पाल
अनुसूचित क्षेत्र के मूल भावना के खिलाफ
जातिगत जनगणना के आधार पर विकास नीतियों का निर्माण अनुसूचित क्षेत्र की मूल भावना और ढांचे के खिलाफ है। अनुसूचित क्षेत्र की बुनियाद जनजातीय आबादी का कम या ज्यादा होना नहीं है। ऐतिहासिक अन्याय,उपेक्षा, पिछड़ापन और समुदायों की विशिष्ट संस्कृति अनुसूचित क्षेत्र के गठन की पृष्ठभूमि रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(1) के अंतर्गत पाँचवीं अनुसूची में भारत के कुछ हिस्सों को ‘अनुसूचित क्षेत्र’ घोषित किया गया है। इन क्षेत्रों को विशेष स्वायत्तता, सांस्कृतिक सुरक्षा और ग्रामसभा आधारित स्वशासन (पेसा जैसे प्रावधानों द्वारा) की गारंटी दी गई है। इनका उद्देश्य जनसंख्या आधारित प्रतिस्पर्धा में आदिवासी समाज को एक पृथक और संरक्षित विकास पथ देना है।
किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने वाले मार्गदर्शक मानदंडों में जनजातीय आबादी की प्रधानता, सघनता, आकार, एक प्रशासनिक इकाई के रूप में व्यवहार्यता तथा आसपास के क्षेत्रों की तुलना में आर्थिक पिछड़ापन शामिल हैं। वर्ष 2002 के अनुसूचित क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति आयोग अथवा भूरिया आयोग ने वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार 40% अथवा इससे अधिक जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने की सिफारिश की थी। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक संरचना विशिष्ट है। यहाँ के प्रशासन और विकास के लिए राज्यपाल को विशेष अधिकार हैं, और ग्रामसभा को निर्णय की सर्वोच्च इकाई माना गया है (पेसा, 1996)।
जातिगत जनगणना के बाद, यदि संख्या आधारित सामाजिक न्याय की दिशा में झुकाव बढ़ा, तो पहचान आधारित न्याय कमजोर होगा और इसका सीधा असर विशेषकर एसटी और पीवीटीजी जैसी अल्पसंख्यक परंतु विशिष्ट अस्मिता वाले समुदायों पर पड़ेगा। परिणामस्वरूप अनुसूचित क्षेत्रों की संरचना कमजोर होगी। टीएसपी की वैचारिक नींव टूटेगी। और जनजातीय अधिकारों का ‘सांख्यिकीकरण’ होगा। यह लोकतांत्रिक संवेदनशीलता के विरुद्ध है। अनुसूचित क्षेत्र में समुदायों को प्रदत संविधान गारंटी बेमानी हो जाएगी।
भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद समानता, न्याय और सहभागिता के सिद्धांतों पर टिकी है। इन मूल्यों की रक्षा के लिए संविधान ने कुछ समुदायों को ऐतिहासिक रूप से उपेक्षा और वंचना के आधार पर विशिष्ट अधिकार दिए हैं — विशेष रूप से अनुसूचित जनजातियों को। अनुसूचित क्षेत्र और ट्राइबल सब प्लान (टीएसपी ) इसी पहचान आधारित न्याय का संवैधानिक-नीतिगत विस्तार हैं।
2019 में 104वाँ संविधान संशोधन पारित हुआ, जिससे संसद और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षित सीटें समाप्त कर दी गईं थी। तर्क यह था कि यह समुदाय “संख्या में नगण्य” हो गया है। लेकिन जब यह व्यवस्था लागू की गई थी, तब यही तर्क उनके पक्ष में था — कि वे इतने कम हैं कि लोकतंत्र में बिना नामित सीटों के वे कभी भी प्रतिनिधित्व नहीं पा सकेंगे। पीवीटीजी की स्थिति आज कुछ-कुछ ऐसी ही है। यदि हम केवल संख्या के आधार पर नीतियाँ बनाएँगे, तो लोकतंत्र अपनी ‘सुंदरता’ को तिलांजलि दे देगा। लोकतंत्र का सौंदर्य इसी में है कि वह बहुसंख्यक की सत्ता के साथ-साथ अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी भी देता है।
विकास की समावेशी रणनीति को धक्का
टीएसपी भारत सरकार की एक योजना है जिसके अंतर्गत आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए बजट का विशिष्ट हिस्सा निर्धारित किया जाता है, ताकि आदिवासी समुदायों का समुचित सामाजिक-आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सके। यह योजना जातिगत संख्या के बजाय क्षेत्रीय और जनजातीय पहचान पर आधारित है।
जातिगत जनगणना के बाद नीतिगत निर्माण में संख्या का दबाव बढ़ेगा। इससे बड़े और संख्या में भारी गैर-आदिवासी जातियों की ओर सरकारी योजनाएँ झुक सकती हैं। यदि अनुसूचित क्षेत्र के भीतर अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की संख्या अधिक पाई जाती है, तो वे टीएसपी के संसाधनों पर दावा कर सकते हैं, जिससे आदिवासी समुदाय की सापेक्षिक प्राथमिकता पर असर पड़ेगा।
केंद्र और राज्य सरकारें जातिगत आँकड़ों का हवाला देते हुए अनुसूचित क्षेत्रों के लिए निर्धारित बजट का पुनर्वितरण कर सकती हैं। इससे टीएसपी के तहत आदिवासी बहुलता आधारित आवंटन पर खतरा उत्पन्न होगा। टीएसपी एक वित्तीय एवं योजनागत दृष्टिकोण है, जो अनुसूचित जनजातियों के लिए न्यूनतम 8.6% (उनकी राष्ट्रीय जनसंख्या के अनुसार) बजट आवंटन सुनिश्चित करता है। यह आवंटन पूरे देश में एसटी आबादी के विकास के लिए होता है — विशेषकर शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और अधिकारों पर केंद्रित कार्यक्रमों के माध्यम से। यह प्रावधान संख्या पर आधारित नहीं, बल्कि ऐतिहासिक अन्याय और सांस्कृतिक-सामाजिक विशिष्टता पर आधारित है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, कुल 37 मंत्रालय व विभागों को टीएसपी का फंड दिया जाता है और 289 योजनाएं टीएसपी में शामिल हैं। लेकिन पैसा कहां खर्च हो रहा है, ये सबसे बड़ा सवाल है। फंड डायवर्ज़न टीएसपी की पुरानी बीमारी है और कमोबेश हर अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्यों में यह प्रचालन में है।अब सरकार यह कह सकती है कि टीएसपी को कोई संवैधानिक या कानूनी सुरक्षा प्राप्त नहीं है, आबादी भी उतनी नहीं है तो इसलिए इसकी राशि को अन्य कामों में खर्च किया जाता है। यही हाल कमोबेश स्पेशल सेंट्रल असिस्टन्स (एससीए) योजनाओं का होगा और अनुसूचित क्षेत्र की प्राथमिकता लगभग खतम हो जाएगी।
यदि नीति निर्माता जनसंख्या आधारित तर्क को प्राथमिकता देने लगें, तो यह दवाब बन सकता है कि टीएसपी फंडिंग भी एसटी की जनसंख्या अनुपात से ही मिले — न कि क्षेत्रीय आवश्यकता, ऐतिहासिक वंचना या सांस्कृतिक-पर्यावरणीय संवेदनशीलता के आधार पर।
ग्रामसभा की भूमिका में ह्रास:
यदि जातिगत जनगणना के आधार पर योजनाएँ बनती हैं, तो ग्रामसभा आधारित निर्णय प्रणाली को किनारे लगाया जा सकता है। इससे पेसा और एफआरए (वनाधिकार 2006) जैसे कानूनों की आत्मा कमजोर होगी।इन दोनों कानूनों में ग्राम सभा सर्वोपरी है। ग्राम सभाएं सामाजिक समावेशन के मूल सिद्धांत पर काम करती हैं। इनके निर्णय प्रक्रिया परिवेश, पर्यावरण और कमजोर समुदायों के हितों की हिफाजत शामिल है। विकास योजनाओं के चयन और इम्प्लीमेंट करते समय ग्राम सभाओं को देखना पड़ता है कि संसाधनों का सिर्फ उतना ही दोहन हो जितनी समुदायों को जरूरत है।
पेसा का उद्देश्य अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन सुनिश्चित करना है। यह आदिवासी समुदायों, जो अनुसूचित क्षेत्रों के निवासी हैं, को स्वशासन की अपनी प्रणालियों के माध्यम से खुद पर शासन करने के अधिकार को मान्यता देता है, और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके पारंपरिक अधिकारों को भी स्वीकार करता है। ग्राम सभाओं को विकास योजनाओं को मंजूरी देने और सभी सामाजिक क्षेत्रों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार देता है।
यदि विकास योजनाओं में संख्या आधारित तर्क आने लगे, तो ग्रामसभा के निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है। इससे पेसा के तहत ग्रामसभा की संप्रभुता, विशेषकर भूमि, जल, जंगल और खनिज पर उसके अधिकार, कमजोर पड़ सकते हैं।
अनुसूचित क्षेत्र की विशिष्टता को बचाने की चुनौती
जातिगत जनगणना के बाद यह जरूरी है कि अनुसूचित क्षेत्रों की संवैधानिक विशिष्टता को दोहराया जाए:
• यह दोहराना जरूरी होगा कि अनुसूचित क्षेत्र का आधार जातिगत नहीं, बल्कि जनजातीय संरचना और सांस्कृतिक स्वायत्तता है।
• TSP की परिभाषा और कार्यान्वयन को स्पष्ट किया जाना चाहिए कि यह आदिवासी समुदाय के लिए विशिष्ट है, और उसमें जातिगत प्रतिस्पर्धा की कोई जगह नहीं है।
• राज्य सरकारों और जिला प्रशासन को यह समझाना होगा कि जनसंख्या आधारित योजनाएँ और पहचान आधारित योजनाएँ एक-दूसरे के पूरक हो सकती हैं, पर वे प्रतिस्पर्धी नहीं होनी चाहिए।
• राज्यों को यह स्पष्ट निर्देश दिए जाएं कि अनुसूचित क्षेत्रों की योजनाओं को संख्या आधारित नहीं, संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत विशेष अधिकारों के अनुसार ही लागू किया जाए।
लोकतंत्र की खूबसूरती तब बनी रहती है जब वह न केवल बहुमत की आकांक्षाओं को पूरा करे, बल्कि अल्पसंख्यकों, कमजोर और वंचित वर्गों की सुरक्षा की गारंटी भी दे। राजनीति में अगर केवल संख्या की गणित पर ही जोर दिया जाएगा, तो यह लोकतंत्र की उस मानवता और सामूहिक न्याय की भावना पर आघात करेगा, जो एक समावेशी समाज का आधार है। यदि यह संख्या आधारित दवाब राजनीति का माध्यम बन गई, तो अनुसूचित क्षेत्रों की विशिष्ट संरचना, टीएसपी की अवधारणा, और जनजातीय समुदायों के संवैधानिक अधिकार गहरे संकट में आ सकते हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का लोकतंत्र केवल ‘संख्या’ का खेल नहीं, बल्कि विविधता और संवेदनशीलता की साझी विरासत है। अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय समाज की पहचान, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा इसी लोकतंत्र की असली कसौटी है।