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साहित्य कला फाउंडेशन के द्वितीय साहित्यिक अनुष्ठान- ‘छाप’ झारखंड का अपना बुक फेस्टिवल- के दूसरे व अंतिम दिन हिंदी के अलावा अंग्रेजी, ओड़िया, मैथिली व भोजपुरी भाषा की भी सुगंध फैली। अलग-अलग भाषायी सत्रों में जाने-माने विद्वान साहित्यकारों ने क्षेत्रीय भाषा की रचनाओं की देसी महक से श्रोताओं को न केवल सराबोर किया, बल्कि रचनाधर्म के स्तर से भी परिचित कराया।
बिष्टुपुर स्थित होटल एल्कोर में परिचर्चा की शुरुआत कबीर में प्रेम और कबीर से प्रेम : संदर्भ अकथ कहानी प्रेम के जरिए कबीर की कविता और उनके समय के मर्म पर बातों से हुई। इसमें लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल से साहित्यकार विमल चंद्र पांडेय ने संवाद किया, जिसमें कबीर से जुड़े कई अनछुए पहलू भी सामने आए। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि 2002 में गुजरात हिंसा के बाद लेखक बाल गोपाल ने लिखा कि कबीर, सिर्फ प्रेम के ही नहीं, गहरे क्रोध के भी कवि थे। उनके अंदर कुरीतियों को लेकर गुस्सा भी था, जो उनकी कविताओं-दोहों में भी दिखाई देता है। इसी पर उन्होंने कहा कि स्त्रीत्व व पुरुषत्व शाश्वत सत्य है। हर स्त्री में पुरुषत्व और हर पुरुष में स्त्रीत्व रहता है। अगर आप सचमुच प्रेम में डूबे रहते हैं, तो अलग रूप में दुनिया दिखाई देती है। प्रेम यह भी बताता है कि आपकी दुनिया में आपसे भी महत्वपूर्ण कोई है। बात आगे बढ़ी तो कहा कि पुरुष स्त्री की निंदा करता है, लेकिन स्त्री पुरुष की निंदा नहीं करती है। बात गांधी की भी हुई और सूरदास भी चर्चा में आए। अग्रवाल ने कहा कि सूरदास की रचनाओं में दूर-दूर तक नारी नहीं है।
प्रश्नोत्तर सत्र में एक छात्रा के सवाल पर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि कबीर ने सेमल के फूल को संसार का प्रतीक इसलिए बताया होगा कि यह सबसे नाजुक फूल होता है। अन्य फूलों से ज्यादा क्षणभंगुर है। एलबीएसएम कॉलेज की छात्रा पूजा बास्के ने पेंडुलम धर्म पर सवाल किया, तो लेखक की ओर से जवाब आया कि आप ईश्वर को कैसे पूजना चाहती हो, यह आपके ऊपर निर्भर करता है। इसी क्रम में लेखक ने गुरु और अध्यापक में अंतर बताया, तो बहरागोड़ा कॉलेज की छात्रा शर्मिष्ठा घोष के सवाल पर फेमिनिस्ट, फेमिनिज्म और फेमिनिटी का फर्क भी समझाया। इसमें वैभव मणि त्रिपाठी ने भी कबीर को लेकर जिज्ञासा रखी।
बड़े तय कर देते हैं बच्चों की भावना
दूसरे दिन का दूसरा सत्र बच्चों के नाम रहा। लेखिका उपासना के कहानी संग्रह-उड़ने वाला फूल- पर आधारित इस गोष्ठी में मॉडरेटर बनीं साहित्य कला फाउंडेशन की मुख्य न्यासी डॉ. क्षमा त्रिपाठी ने बच्चों से जुड़ी ढेरों बातें कीं। उपासना ने कहा कि हम बड़े ही बच्चों का विभाजन जेंडर के हिसाब से तय कर देते हैं, बच्चे नहीं करते। उन्होंने बताया कि यह किताब कोविड के समय लिखी गई थी, इसलिए इसमें भूख, नींद, सपने आदि भी मायने रखते थे। डॉ. क्षमा ने पुस्तक के अंदर छायाचित्रों पर बात की, तो यह सवाल भी उठाया कि बच्चों से मृत्यु जैसे शब्दों पर चर्चा करनी चाहिए कि नहीं। लेखिका ने कहा कि नॉर्वे के एक लेखक ने तो बाल साहित्य में मृत्यु भी बहुत सुंदर तरीके से लिखी है। डॉ. क्षमा ने भी कहा कि बच्चों को बेहतर तरीके से व्यवहारिक दुनिया की घटनाओं से अवगत कराना चाहिए। बच्चों की दुनिया में भी वही संघर्ष है, जो बड़ों का है। उपासना ने जोड़ा कि बड़े अपनी बातों-भावनाओं को एडिट कर देते हैं, बच्चे नहीं करते। बहुत सी चीजें हैं, जो पीछे की पीढ़ियों में थीं, आज नहीं हैं। फिर, बात हुई भूख कहानी की, तो उपासना ने कहा कि भूख और स्वाद दोस्त हैं। एक कविता सावन-भादो शीर्षक है, जिसमें दोनों प्रेमी-प्रेमिका के रूप में संवाद करते हैं। प्रश्नोत्तर सत्र में वैभव मणि त्रिपाठी ने बाल साहित्य में कठिन शब्दों से बचने की सलाह दी, तो एक बच्चे ने इसका समाधान सुझाया कि अंतिम पृष्ठ पर कठिन शब्दों के सरल रूप लिए दिए जाएं। डॉ. क्षमा त्रिपाठी ने कहा कि गद्य-पद्य की मिश्रित शैली में लिखी यह किताब बड़ों के लिए भी उपयोगी है, ताकि वे भी बचपन में लौट सकें।
कल्चर वर्सेस मॉडर्निटी के लेखक का रहा अलग अंदाज
अंग्रेजी के सत्र में कल्चर वर्सेस मॉडर्निटी के लेखक जेरी पिंटो ने अलग अंदाज में अपनी बात रखी। वे मंच से उठकर दर्शकों-श्रोताओं के बीच आकर अपनी बात रखते थे। बच्चों को आसान तरीके से अपनी बात समझाने की कोशिश करते थे। मॉडरेटर की भूमिका में करीम सिटी कॉलेज में मॉसकॉम विभाग की हेड डॉ. नेहा तिवारी मंच से ही सवाल पूछती थीं। एक सवाल पर जेरी पिंटो ने छात्राओं से पूछा कि स्वतंत्रता आंदोलन की दस महिला योद्धाओं के नाम बताएं। दस दलितों के नाम बताएं। इन सवालों पर दो-तीन नाम के बाद सन्नाटा छा गया। जेरी ने कहा कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि हम जो इतिहास पढ़ते हैं, उसे सवर्णों ने लिखा है, इसलिए उनके बारे में हम कम जानते हैं। उन्होंने छात्राओं से कहा कि शुरू हो जाओ, तुम खोजो और नया इतिहास लिखो। इसी तरह अमर अकबर एंथोनी, यादों की बारात, मुगले आजम आदि फिल्मों का हवाला देते हुए बताया कि पहले का बॉलीवुड भारत को जोड़ने पर जोर देता था, आज नहीं। इसी कड़ी में उन्होंने बताया कि दुनिया की सभी भाषाएं संस्कृत से बनी हैं। एक छात्र के सवाल पर जेरी पिंटो ने कहा कि कोई भाषा सीखनी है, तो उस भाषा की फिल्में देखो-रेडियो सुनो। मैंने भी फिल्मों से हिंदी सीखी है।
ओड़िया पुस्तक बाघ पर हुई चर्चा
ओड़िया भाषा के सत्र में ओड़िया पुस्तक बाघ पर चर्चा हुई, जिसमें लेखक-सह-पत्रकार डॉ. गौरहरि दास से साहित्यकार डॉ. बालकृष्ण बेहरा ने बातें कीं। उन्होंने ओड़िया में प्रकाशित मधुसूदन पती की पुस्तक तपस्विनी को भी श्रेष्ठ कृति बताया। ओड़िया पुस्तकों के ज्यादा लोकप्रिय नहीं होने पर लेखक ने कहा कि भारत विविधता में एकता के दर्शन पर चलता है, लेकिन सच्चाई है कि दक्षिण भारत में हिंदी और उत्तर भारत में अंग्रेजी की पुस्तकें ज्यादा नहीं पढ़ी जाती हैं। इसी का दंश क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य भी झेल रहे हैं।
नारी संबंधों को विकृत नहीं, सहज कहें
मैथिली भाषा के सत्र में डॉ. वीणा ठाकुर से एलबीएसएम कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अशोक कुमार झा अविचल ने संवाद किया। डॉ. अविचल के सवाल पर डॉ. ठाकुर ने कहा कि उनकी पुस्तक आलाप में ज्यादातर कहानियां नारी संबंधों पर हैं, यह सच है। किसी के श्वसुर, तो किसी के देवर या अन्य पुरुषों से संबंध पर कहानी लिखी गई है। ये काल्पनिक नहीं हैं, सच्ची हैं। हमें नारी संबंधों को विकृत नहीं, सहज कहना चाहिए। अक्सर परिस्थितियां ऐसे पात्रों को जन्म देती हैं। सामान्य लोगों को ये नहीं दिखते हैं, लेखक देख लेता है। डॉ. झा ने कहा कि आलाप के ज्यादातर पात्र विलाप करते हैं, क्या आपने इन पात्रों को जीया है? इस पर लेखिका ने कहा कि लेखक अपने पात्रों को जीता है, तभी लिखता है। हालांकि, इस बीच माता सीता और शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाली मंडन मिश्र की पत्नी भारती की भी चर्चा हुई, लेकिन अंत में डॉ. झा ने कहा कि फ्रायड के बाद मैथिली में इस तरह की पुस्तक लिखने वाली आप अकेली हैं। क्षेत्रीय भाषा में भी इस उच्चतम स्तर का साहित्य लिखा जा रहा है, यह बड़ी बात है।
प्रश्नोत्तर सत्र में वैभव मणि त्रिपाठी ने मिथिला में राम के अपमान को लेकर प्रश्न किया, जिस पर डॉ. झा ने कहा कि ऐसा नहीं है। हम मिथिला के लोग बेटी के नाते सीता के पक्ष में खड़े रहते हैं, लेकिन राम का अपमान भी नहीं करते हैं। सीता ने राम के वनवास में साथ दिया, लेकिन सीता की पीड़ा में राम खड़े नहीं हुए, यह कष्ट तो है।
प्रयागराज के दौर में इलाहाबाद की बातें
एक सत्र ऐसा भी हुआ, जिसमें लेखक शेषनाथ पांडेय ने प्रयागराज के दौर में इलाहाबाद की बातें बताईं। किस्से सुनाए। मॉडरेटर वैभव मणि त्रिपाठी ने भी इलाहाबाद के संस्मरण बताए, तो चर्चा रोचक होती चली गई। लेखक ने कहा कि मेरे लिए इलाहाबाद महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत का शहर था। लेकिन, बदलते इलाहाबाद में एक ऐसी घटना हुई, जिसने मुझे झकझोर दिया। 2003-04 में एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की ब्लू फिल्म बनाकर जारी कर दिया था। तब लगा कि इलाहाबाद की संस्कृति का इस तरह से क्षरण हो रहा है। इन्हीं सब बातों से पुस्तक लिखने की प्रेरणा मिली। इस पुस्तक में चादर शीर्षक वाली कहानी पर भी खूब बातें हुईं, जिसमें एक पति-पत्नी वैवाहिक वर्षगांठ पर एक-दूसरे को गिफ्ट देने की योजना बनाते हैं, लेकिन संवादहीनता ने सब मटियामेट कर दिया। की-पैड वाले टेक्स्ट मैसेज के अधूरे संप्रेषण से पति घर पहुंचने के बाद झेंप जाता है।
क्या ये किताब आपके घर की महिलाओं ने पढ़ी है और उनकी क्या प्रतिक्रिया रही, डॉ. क्षमा त्रिपाठी के इस सवाल पर लेखक ने कहा कि यह किताब मेरी सास ने पढ़ी और सराहा। अंत में लेखक शेषनाथ पांडेय ने कहा कि इलाहाबाद प्रवासियों का शहर है। लोग आते गए और बसते गए
भोजपुरी फिक्शन फिल्म मद्धिम का हुआ प्रदर्शन
साहित्यिक महोत्सव के अंतिम सत्र में भोजपुरी भाषा में बनी पहली साइंस फिक्शन फिल्म मद्धिम का प्रदर्शन हुआ। इसका बच्चों से लेकर बड़ों तक ने आनंद उठाया। फिल्म समाप्त होने के बाद निर्देशक विमल चंद्र पांडेय और कलाकार डॉ. मुन्ना कुमार पांडेय से डॉ. प्रियंका सिंह ने इस फिल्म के अंशों-प्रसंगों पर बातें कीं।

