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प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव 31 जुलाई 1880– 8 अक्टूबर 1936) हिंदी और उर्दू साहित्य के महान कथाकार माने जाते हैं। उनके लेखन में जो सामाजिक चेतना, यथार्थवाद, और मानवीय संवेदना देखने को मिलती है, वह आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय में थी।
आज भी समाज में आर्थिक असमानता, जाति आधारित भेदभाव, और शोषण जैसी समस्याएं मौजूद हैं।
प्रेमचंद की रचनाएं – गोदान, कफ़न, सद्गति, आदि – गरीबों, किसानों और दलितों की पीड़ा को बेहद मार्मिकता से दिखाती हैं।
उदाहरण: गोदान का होरी आज के किसान की तरह कर्ज, व्यवस्था और सामाजिक दबावों से जूझता है।
प्रेमचंद का साहित्य हमें सिखाता है कि ईमानदारी, सहानुभूति और न्याय की भावना समाज के लिए कितनी जरूरी है। आज के दौर में, जब समाज में स्वार्थ और लालच बढ़ रहे हैं, उनकी कहानियाँ नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की प्रेरणा देती हैं।
प्रेमचंद की कहानियों में महिलाएँ केवल सहन करने वाली नहीं, बल्कि निर्णय लेने वाली, संघर्ष करने वाली पात्र भी हैं। आज की नारी मुक्ति और समानता की बहस में प्रेमचंद की नायिकाएं – निर्मला, धनिया (गोदान), जालपा (निर्मला) – सशक्त उदाहरण हैं।
मुंशी प्रेमचंद का मानना था कि समाज में बदलाव शिक्षा और जागरूकता से ही संभव है। आज जब डिजिटल युग में भी शिक्षा की गुणवत्ता और पहुंच पर सवाल उठते हैं, प्रेमचंद की दृष्टि मार्गदर्शन प्रदान करती है।
प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा और शैली में लेखन किया। आज के युवा लेखकों के लिए यह प्रेरणा है कि भाषा सरल हो, लेकिन संदेश गहरा।
प्रेमचंद केवल एक लेखक नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक थे। आज जब समाज फिर से कई तरह के संकटों से जूझ रहा है – आर्थिक, नैतिक, सामाजिक – प्रेमचंद का साहित्य हमें मानवता, सहानुभूति और यथार्थ की दृष्टि प्रदान करता है।
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मुंशी प्रेमचंद ने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया।