सौरभ कुमार जादूगोड़ा.
आज 27 जून 2025 को जगत के पालनहार की सवारी निकल पड़ी है। भक्तों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। आज भगवान जगन्नाथ जी की भव्य रथ यात्रा में आध्यात्मिक ऊर्जा और जनआस्था का अद्भुत संगम देखने को मिला। प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के दिव्य स्वरूप के दर्शन करने के लिए भक्तों का मन काफी उल्लास के साथ भरा हुआ था। कहते हैं कि जब प्रेम और भक्ति के साथ रथ खींचा जाता है, तब वह केवल रथ नहीं चलता, हमारे जीवन के पाप और क्लेश भी दूर होते हैं। यह भव्य नजारा पुरी से सारी दुनिया को देखने को मिल रहा है।
लोगों में इतना उत्साह है कि भीड़ से ठीक से पैर रखने की भी जगह नहीं है। बता दे कि हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान श्री जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा जी की भव्य रथ यात्रा, ओडिशा के पुरी धाम से आरंभ होती है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। पूरा पुरी का हर एक कोना श्रद्धालु से भर जाता है। यह यात्रा अनंत श्रद्धा, अपार भक्ति और जीवों के कल्याण का प्रतीक मानी जाती है।
आज के शुभ अवसर पर जब नन्दघोष, तलध्वज और दर्पदलन रथों पर सवार होकर भगवान स्वयं भक्तों के बीच आते हैं, तो पूरा वातावरण हरि ध्वनि, शंखनाद, मृदंग और भक्तिरस से भर उठता है। जिसे पूरा दुनिया के लोग देखते हैं। जो जहां पर है वहीं से प्रभु का दर्शन करते हैं।
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा से जुड़ी एक कहानी है कि प्राचीन काल की बात है, उड़ीसा के पुरी नगरी में राजा इन्द्रद्युम्न ने भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित करने का संकल्प लिया। उन्होंने तपस्या कर भगवान से प्रार्थना की कि वे स्वयं मूर्ति के रूप में प्रकट हों। भगवान विष्णु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा — “एक वृक्ष समुद्र तट पर तैरेगा, उसी से मेरी मूर्ति बनवाना।” राजा को वह दिव्य वृक्ष मिला और उन्होंने एक वृद्ध कारीगर को मूर्ति बनाने का कार्य सौंपा, जिसने एक शर्त रखी — “जब तक मूर्तियां बन रही हैं, कोई द्वार नहीं खोलेगा।” राजा ने यह मान लिया, लेकिन कई दिन बीत जाने पर राजा की जिज्ञासा बढ़ी। उन्होंने द्वार खोल दिया। अंदर जाकर देखा — मूर्तियाँ अधूरी थीं, परंतु दिव्य थीं। वृद्ध कारीगर कहीं गायब हो चुका था, जो स्वयं भगवान विश्वकर्मा थे। राजा दुखी हुआ, लेकिन तभी आकाशवाणी हुई — “इन्हीं अधूरी मूर्तियों में मैं पूर्ण हूँ।” राजा ने उन मूर्तियों को जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रूप में स्थापित किया।
रथ यात्रा की परंपरा कैसे शुरू हुई? इससे जुड़ी यह कहानी है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने जीवनकाल में अपनी बहन सुभद्रा को द्वारका से अपने जन्मस्थान वृंदावन ले जाना चाहते थे। उसी भावना से हर वर्ष आषाढ़ मास में, पुरी में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा एक विशाल रथ में सवार होकर गुंडिचा मंदिर (जो उनकी मौसी का घर माना जाता है) जाते हैं। यह रथ यात्रा इस प्रेम और मिलन की स्मृति है — जहां भगवान स्वयं अपने भक्तों के बीच आते हैं। यह मंगलमयी रथ यात्रा सभी के जीवन में सुख- शांति, समृद्धि, सेवा और सद्भाव का संचार करे, सारे विश्व के लोगों का कल्याण करें भगवान श्री जगन्नाथ जी से यही प्रार्थना है। जय जगन्नाथ